निषिद्ध
धर्म को मानो तो इंसान अच्छे हो, और ना मानो तो नासमझ|
किसने बनाया यह नीयम?
धर्म स्थापको ने जीवन के सार को समेट कर की धर्म की स्थापना,
उन्होंने सोचा की धर्म बुद्धि को विस्तार देगा, जीवन को आधार देगा,
सत्कर्म को प्रचार देगा, प्रगति को नए आकार देगा,
पर उन्हें कहा पता था की इंसान उसे ही खंजर बना के अपने ही गले उतार लेगा|
जहा धर्म नाम दिया उन्होंने जीवन जीने की शैली को, इंसान ने धर्म को ही जीवन का सार बना दिया,
जहा धर्म से दिशानिर्देश किया उन्होंने कर्मो को, इंसान ने कर्म को छोड धर्म को ही दायरा और धर्म को ही आयाम बना दिया,
जहा धर्म से उन्होंने विकल्प दिए की इंसान किन्तु-परन्तु, ऐसे-वैसे, और कैसे जैसे तर्क कर सके,
इंसान ने तो धर्म को पत्थर पे लिखा भागवान का पैगाम बना दिया|
हे भगवान! भगवान की कहानी भी कम रोमांचक नहीं हे|
बना कर एक आकार और दे कर उसे नाम, थोप दिए अछे, बुरे, सही, गलत सारे कर्म उसके सर,
लूट, खसोट, चोरी, मक्कारी और ना जाने कितने कुकर्म किये और धो डाले सब उसकी चौखट पे जाकर|
कहते हे वो सर्वज्ञानी हे, सर्वशक्तिमान हे, सर्वव्यापी हे, क्या तुम्हे स्वयं मिला हे यह ज्ञान?
क्या उसने खुद तुम्हे मिल के बताया हे यह सत्य या तुमने स्वयं परखा उसका यह बखान?
क्या किताबो में उसने कोई हस्ताक्षर छोड़े हे अपने या अपने चमत्कारों के छोड़ें हे उसने कोई प्रमाण?
अगर नहीं तो किसने रचा हे यह ज्ञान?
जो निर्माता हे हर उर्जा का, हर शक्ति का, रचेता हे समय का, प्रसार का, द्रव्यमान और आकार का,
जिसने रचा हे सम्पूर्ण ब्रहमाण, जिसने बनाया हे सारा ज्ञान, उसे क्या बेकार समझ रहा हे इंसान|
जहा एक तरफ मान रहा हे उसे अखंड, अद्वितीय, विश्व विधाता, सम्पूर्ण श्रृष्टि का निर्माता,
दूसरी और समझ रहा हे उसे कोई मुनीम, जो रखता हे उसके आठों प्रहर, चौबीस घंटो का बही खाता|
वो क्रोधित होगा तो दंड देगा, प्रसन्न होगा तो देगा इनाम,
वो विस्मरण से आहात होगा और क्षमादानी होगा अगर जपो उसका नाम|
ये बताना मुश्किल हे भगवान और इंसान में से कौन तमाशा हे और कौन मदारी,
लूट-पाट, खून-खराबा, भूक, गरीबी, भगवान की या इंसान की, किसकी हे कलाकारी,
समय और मौके के हिसाब से धर्म और भगवान दोनों की परिभाषा बदल सकती हे,
जहा इंसान का हे ये प्राधिकार, पत्थर की मूरत की हे ये लाचारी|
अर्पित गट्टानी – मार्च २१ २०१२