Tuesday, February 24, 2015

निषिद्ध

 
धर्म को मानो तो इंसान अच्छे हो, और ना मानो तो नासमझ|
किसने बनाया यह नीयम? 
  
धर्म स्थापको ने जीवन के सार को समेट कर की धर्म की स्थापना, 
उन्होंने सोचा की धर्म बुद्धि को विस्तार देगा, जीवन को आधार देगा, 
सत्कर्म को प्रचार देगा, प्रगति को नए आकार देगा, 
पर उन्हें कहा पता था की इंसान उसे ही खंजर बना के अपने ही गले उतार लेगा| 
 
जहा धर्म नाम दिया उन्होंने जीवन जीने की शैली को, इंसान ने धर्म को ही जीवन का सार बना दिया, 
जहा धर्म से दिशानिर्देश किया उन्होंने कर्मो को, इंसान ने कर्म को छोड धर्म को ही दायरा और धर्म को ही आयाम बना दिया, 
जहा धर्म से उन्होंने विकल्प दिए की इंसान किन्तु-परन्तु, ऐसे-वैसे, और कैसे जैसे तर्क कर सके,  
इंसान ने तो धर्म को पत्थर पे लिखा भागवान का पैगाम बना दिया|  
 
हे भगवान! भगवान की कहानी भी कम रोमांचक नहीं हे| 
बना कर एक आकार और दे कर उसे नाम, थोप दिए अछे, बुरे, सही, गलत सारे कर्म उसके सर, 
लूट, खसोट, चोरी, मक्कारी और ना जाने कितने कुकर्म किये और धो डाले सब उसकी चौखट पे जाकर| 
 
कहते हे वो सर्वज्ञानी हे, सर्वशक्तिमान हे, सर्वव्यापी हे, क्या तुम्हे स्वयं मिला हे यह ज्ञान? 
क्या उसने खुद तुम्हे मिल के बताया हे यह सत्य या तुमने स्वयं परखा उसका यह बखान? 
क्या किताबो में उसने कोई हस्ताक्षर छोड़े हे अपने या अपने चमत्कारों के छोड़ें हे उसने कोई प्रमाण? 
अगर नहीं तो किसने रचा हे यह ज्ञान?  
जो निर्माता हे हर उर्जा का, हर शक्ति का, रचेता हे समय का, प्रसार का, द्रव्यमान और आकार का,
जिसने रचा हे सम्पूर्ण ब्रहमाण, जिसने बनाया हे सारा ज्ञान, उसे क्या बेकार समझ रहा हे इंसान|
 
जहा एक तरफ मान रहा हे उसे अखंड, अद्वितीय, विश्व विधाता, सम्पूर्ण श्रृष्टि का निर्माता, 
दूसरी और समझ रहा हे उसे कोई मुनीम, जो रखता हे उसके आठों प्रहर, चौबीस घंटो का बही खाता| 
वो क्रोधित होगा तो दंड देगा, प्रसन्न होगा तो देगा इनाम,  
वो विस्मरण से आहात होगा और क्षमादानी होगा अगर जपो उसका नाम| 
 
ये बताना मुश्किल हे भगवान और इंसान में से कौन तमाशा हे और कौन मदारी, 
लूट-पाट, खून-खराबा, भूक, गरीबी, भगवान की या इंसान की, किसकी हे कलाकारी, 
समय और मौके के हिसाब से धर्म और भगवान दोनों की परिभाषा बदल सकती हे, 
जहा इंसान का हे ये प्राधिकार, पत्थर की मूरत की हे ये लाचारी|  

 
अर्पित गट्टानी – मार्च २१ २०१२

Tuesday, September 13, 2011

People

When I was born, I had no intellect of any kind.
There were no shadows in my heart and no impressions on my mind.
When I reached the age of senses, I looked around.
I saw strangers whom I liked to touch, see and hear their sound.
Few years passed and I was into the zest of life, when everything was fresh and alive.
Not sure why, but I found some people so dear to me, not necessarily near to me.
I just loved to give them, wanted to help them and see them happy.
I just loved to have them.
Time marched and then came the age of intelligence.
It came with its own apprehensions;
Willingness to like people around me was still  there, but too many questions.
I believe I started judging people, or rather analyzing their presence around me.
I was not shy or selfish or opportunistic but turning strangers into friends was no more fun as it used to be.
Now after so long when I am sitting alone, catching up on life,
I am thinking about people I met so far.
People whom I wanted to touch, see and hear as a child.
People with whom I wanted to share my thoughts and things when I was a teen.
People whom I liked but could not hold onto, people who liked me but then I was not so keen.
People who are now friends for life, but with whom I am not in touch anymore.
People with whom I interact often, but they are as strange as they were before.
I am thinking about faces with no names, and names with no faces.
People without whom life was once unimaginable once, but now lost without any traces.
So many people I have interacted with, so many faces fresh in mind.
Good, not so good, cool, not so cool, friends, strangers, close, far; faces of all kind.
As all these thoughts are settling down, they are leaving me with the thoughts of people who bring me smiles.
People with whom I am planning to walk my last miles.
People who bring pleasure in the things I do everyday and who make my life exciting.
People who make tomorrows to come more inviting.
Arpit Gattani - 11/07/2000 

Wednesday, August 24, 2011

सफल तपस्या

अँधेरे में सूरज सा लगे दिए का उजाला,
प्यासे को अमृत सी लगे एक बूँद जल की,
विचलित मुख पर फैली हंसी की एक किरण,
मानो सफल तपस्या प्रत्येक पल की|

आशा के अनुरूप अगर व्यतीत हो जीवन,
तो क्यों हम देखे हज़ार सपने उज्वल कल के,
सफलता ही पर्याय बन जाए जीवन की तो,
क्यों करे हम कोई कोशिश जनम सफल की|

निराशा जननी ग्लानी की और ग्लानी जन्मे पाप को,
अपने पराये सब छोड़ चले जब आशा छोडे आपको,
आशा बिना विश्वास अधूरा, बिन विश्वास हर कर्म,
अधूरे कर्म का फल विफलता यही कहानी हर दुर्बल की|

अर्पित गट्टानी

प्रयास

पल प्रतिपल एक नया प्रयास,
कभी सफल, कभी विफल|

प्रयास की एक यह भी हे परिभाषा,
एक कर्म जिसके साथ जुडी हो आशा,
सफल प्रयास के लिए ज़रूरी एक सफल अंत की अभिलाषा,
विफलता में भी मन हो हर्षित जब प्रयास हो सम्पूर्ण सकल,

पल प्रतिपल एक नया प्रयास,
कभी सफल, कभी विफल|

जीवन का पर्याय प्रयास,
जीवित होने का आभास,
हार-जीत पड़ाव अविरत एक यात्रा के जिसका नाम अनंत प्रयास,
जो पल सुनाते आज व्यथा हार की, देते वही कल की जीत का मनोबल

पल प्रतिपल एक नया प्रयास,
कभी सफल, कभी विफल|

मन की हैं अनंत उड़ने,
किस दिशा जाए कोई ना जाने,
जीवन लौ की एक चुटकी से लगता हे ये पंख पसाने,
मन की गति प्रकाश से तेज़ किन्तु उड़ान अटल अविचल,

पल प्रतिपल एक नया प्रयास,
कभी सफल, कभी विफल|

अर्पित गट्टानी

Thursday, August 18, 2011

Winner of Dreams

In life so long, dreams so many,
creating countless demands, some power and some money.

Belief changing with every second, and values with more certainty,
relations relate more with the body,
and the soul; nothing but a source of uncertainty.

In the life so long, have we ever planned our play?
our success remains reality just for the night,
and when the sun rises, we are defeated again with a new day.

Success for a night seems to be the destination,
but the same keeps on sliding away from our eye,
in fete and celebration of the night, we should not let the tomorrow die.

In the life so long, and people so many,
how many we have, who love other more than self.
For many, there isn’t any.
Reason is not that we can’t and also not that we don’t want to,
reason is that in the society we live, teaches us to love only one person and that is you.

Let us make an effort to regain the focus, which is in fact not others, but self,
let us try to make these dream winners, rulers of day light,
let us again try, if not for others, for our self.

In the life so long, and dreams so many,
let us change our demands from bitter commands to the life’s harmony,
let us change our demands to make the life so long a peaceful journey.


Arpit Gattani